Tuesday 15 May, 2012

nayaa jamaanaa

जनसत्ता अपनी प्रगतिशीलता विरोधी मुहिम में एक कदम आगे बढ़ गया है. उसने के.विक्रम राव का जनसत्ता के 13मई 2012 के अंक में "न प्रगति न जनवाद, निपट अवसरवाद" शीर्षक से लेख छापा है। यह लेख प्रगतिशील लेखकों और समाजवाद के प्रति पूर्वाग्रहों से भरा है। 

यह सच है राव साहब की लोकतंत्र में आस्थाएं हैं लेकिन उनके लोकतंत्र में प्रगतिशील लेखकों के लिए कोई जगह नहीं है। प्रगतिशील लेखकों की भूमिका पर राव का मानना है "आज के कथित प्रगतिवादी इसी दोयम दर्जे में आते हैं।" यही उनके लेख की आधारभूत धारणा है । यही उनके साहित्य-विवेक का पैमाना भी है। 

राव साहब के लिखे को देखकर यही लगता है कि इनको प्रगतिशील साहित्य का कोई ज्ञान नहीं है अथवा ये जान-बूझकर झूठ बोल रहे हैं। विक्रमराव साहब कम से कम यह तो बताएं कि आधुनिक साहित्य के खासकर नए युग के लोकतांत्रिक प्रतिवादी लेखन के कविता, कहानी,उपन्यास आदि में जो मानक प्रगतिशील-जनवादी लेखकों ने बनाए क्या वे अन्य किसी ने बनाए हैं ? 

राव साहब के इस लेख की एक बड़ी दिक्कत है कि यहां तथ्य की बजाय असत्य के आधार पर विचारों की जलेवी बनायी गयी है। प्रगतिशील साहित्य यदि अवसरवादी साहित्य होता और प्रगतिशील लेखक अवसरवादी होते तो प्रगतिशील लेखकों के घरों में घी के दीपक जल रहे होते। 

साहित्य में अवसरवाद का अर्थ है प्रतिवादी साहित्य की मौत। विक्रमराव साहब आप ही बताएं कि जगदीश चन्द्र के "धरती धन न अपना" से लेकर भीष्म साहनी के "तमस" तक लेखन में कहां पर अवसरवाद है ? आप जानते हैं कि लेखक की पहचान उसके लिखे के आधार पर होनी चाहिए न कि बयानबाजी के आधार पर। आपातकाल में प्रगतिशील आंदोलन के पुरोधाओं केदारनाथ अग्रवाल,परसाई आदि ने साहित्य धरातल पर आपात्काल का प्रतिवाद भी किया था। उनकी रचनाएं उपलब्ध हैं। मंगाकर पढ़ लें। 

राव साहब,जलेबी सुख के लिए काहे को प्रगतिशील विरोधी अंध प्रौपैगैण्डा के आधार पर अनर्गल लिख रहे हैं ? अनर्गल और असत्य लेखन को विचार नहीं कहते,जलेबीलेखन को कभी साहित्य या पत्रकारिता का दर्जा नहीं मिला है। राव साहब आपने जो लेख लिखा है वह पत्रकारिता नहीं है, बल्कि एक अदने से संपादक के लेख की हिमायत में लिखा भौंड़ा और आधारहीन लेखन जलेबी लेखन है। कम से कम राव जैसे प्रतिष्ठित लेखक-पत्रकार से हम यह उम्मीद तो करते हैं कि वह अपने संपादक की डिफेंस में न लिखे। संपादक की डिफेंस में असत्य लेखन पत्रकारिता का पतन है। यह दरबारी लेखन है। इसे आजकल की भाषा में पेड लेखन भी कहते हैं। 

संपादक की इच्छा पर उगले गए राव साहब के विचार इस बात की सूचना भी देते हैं कि हिन्दी पत्रकारिता का आदर्श अखबार नपुंसक –जलेबी पत्रकारिता में मशगूल हो गया है और उसके संपादक को अपने विचारों की डिफेंस में आदेश पर लिखवाना पड़ रहा है। आदेश पर जलेबी हलवाई लिखते है, पत्रकार नहीं। 

राव साहब की चरम आकांक्षा है कि "इन प्रगतिवादियों को सोवियत संघ की मृत्यु के बाद स्वयं गुम हो जाना चाहिए था।" राव आप साहब देख रहे हैं सारी दुनिया में कम्युनिस्ट मरे नहीं हैं। भारत में भी मरे नहीं हैं। काहे को इतनी व्यथा झेल रहे हैं अंध –कम्युनिस्ट विरोध के आधार पर।यह कम्युनिस्ट कुण्ठा है। यह अनेक की नींद ले चुकी है।आपको भी यह ग्रंथि कष्ट दे रही है लेकिन अफसोस है कि हम इस मामले में कोई मदद नहीं कर सकते। जनसत्ता के संपादक के पास में भी इसका कोई लाज नहीं है। कुण्ठाएं अनुदार नजरिए का चरम होती हैं। प्लीज जलेबी खाना बंद कर दीजिए आपको राहत मिल जाएगी।दूसरी बात यह कि कम्युनिस्ट या प्रगतिशील लेखक मरने वाले नहीं हैं। शोषण जब तक रहेगा प्रगतिशील रहेंगे,कम्युनिस्ट भी रहेंगे और सामाजिक परिवर्तन का साम्यवादी विश्ववदृष्टिकोण भी रहेगा। 

विक्रम राव का मानना है, "भारतीय समाज के साथ दशकों तक धोखाधड़ी करने के प्रायश्चित के तौर पर ही सही, जनवाद का चोला पहनने वालों को इतिहास के नेपथ्य में चला जाना चाहिए था।" राव साहब आप ही बताएं कि कम्युनिस्टों ने और खासकर प्रगतिशील-जनवादी लेखकों ने आम जनता के साथ कौन सी धोखाधड़ी की है ? हिन्दी के अधिकांश प्रगतिशील लेखक (चाहे वो किसी भी दल में हों) मौटे तौर पर यथाशक्ति जनता के संघर्षों का समर्थन करते रहे हैं। प्रतिवाद की बेला में यदि कभी किसी के कदम इधर-उधर बहके भी हैं तो अंत में बहके हुए लोग भी सही दिशा में कदम उठाते नजर आए हैं। 

किसी भी लेखक के बारे में या आंदोलन के बारे में समग्रता में बातें की जानी चाहिए। दूसरी बात यह कि बद-दुआएं ,लेखन नहीं है।उसी तरह दुआएं भी लेखन नहीं है।यह जलेबी लेखन है। राव साहब आपके पास प्रगतिशीलों के प्रति बद-दुआओं का वह खजाना है जिसे शीतयुद्धीय राजनीति के दौरान अमेरिकी कलमवीरों ने कमाल दिखाते हुए इजाद किया था। आप भारत में रहते हैं अमेरिका में नहीं। कम से कम भारत की हकीकत तो देखकर बातें करें। भारत की आज जो दुर्दशा है उसके लिए न तो कम्युनिस्ट जिम्मेदार हैं और न प्रगतिशील ही जिम्मेदार हैं, ये लोग भारत में शासन नहीं चलाते,इनका इस देश की नीतियों के निर्माण में भी बहुत कम योगदान है,फिर इनके ऊपर इतना गुस्सा क्यों ? 

राव साहब ,जनवाद को बुर्जुआजी और उसके आप जैसे हमदर्द जलेबी लेखकों ने बंधक बनाया हुआ है। जनवादी-प्रगतिशील लेखक अपनी कलम से यथाशक्ति इसके खिलाफ संघर्ष करते रहते हैं। वे संघर्ष इसलिए नहीं करते कि उनको कोई इनाम मिले। वे इसलिए भी नहीं लिखते कि उनको शोहरत मिले। वे तो हृदय के आदेश पर लिखते हैं। 

राव साहब, जरा कभी अपने हृदय के आदेश पर लिखें और सोचें तो संभवतःप्रगतिशील-जनवादी लेखकों के प्रति आपके मन में जो घृणा बैठी है वह कुछ कम हो जाए ? राव साहब बूढ़े तोते को सिखाया नहीं जा सकता, फिर भी यही कहेंगे कि लेखक और लेखन पर (चाहे वो किसी भी विचारधारा को मानते हों) पर घृणा और असत्य के आधार पर नहीं सोचना चाहिए। एक सम्मानित पत्रकार को घृणा शोभा नहीं देती। घृणा के आधार की गयी पत्रकारिता विचारों की हत्या है। आपने अपने लेख में विचारों के हत्यारे के भाव से लिखा है। प्रगतिशीलों के प्रति आपकी घृणा देखकर संपादक ओम थानवी के संपादकीय विवेक पर भी तरस आ रहा है कि बिना किसी प्रमाण के इस तरह का अनर्गल लेख उन्होंने कैसे छाप दिया। 

राव साहब,आपके लेख को देखकर यही महसूस हो रहा है आपका प्रगतिशील विरोधी बुखार काफी बढ़ा हुआ है। प्रगतिशील लेखक संघ और उससे जुड़े कुछ लेखकों ने सत्ता के हित में जो किया उसके आधार समूचे प्रगतिशील लेखन का मूल्यांकन करना सही नहीं होगा। लेखकों का मूल्यांकन उनकी रचनाओं के आधार पर किया जाना चाहिए उनकी सांगठनिक सदस्यता के आधार पर नहीं। लेखक अपनी रचना और उसमें व्यक्त नजरिए से पहचाना जाता है। 

राव साहब ने लिखा है- "ये कथित प्रगतिवादी, जनवादी, अंध-मार्क्सवादी असहिष्णु हैं।" इस बयान के लिए उनके पास एकाध घटिया किस्म के उदाहरण भी हैं। असल में पत्रकारिता में रहते हुए और सत्ता के संस्थानों की मलाई खाते-खाते झाडूमार विवेक पैदा हो जाता है। ये झाडूमार विवेक राव साहव की सबसे बड़ी पूंजी है। 

राव साहब ने अपने अंध कम्युनिस्ट विरोध की झोंक में कुछ सवाल उठाए हैं देखें सच क्या है- "क्या प्रगतिवादी सीना ठोंक कर कह सकते हैं कि वे हमेशा भारत हितकारी भावना संजोते रहे हैं? बेचारी तसलीमा नसरीन पर कट्टरवादियों के हमले पर साजिशभरी खामोशी क्यों बनाए रहे?" पहली बात यह कि तसलीमा पर कभी खामोशी नहीं रही है। जनसत्ता अखबार में मैंने स्वयं तसलीमा की किताब पर पश्चिम बंगाल सरकार द्वारा पाबंदी लगाए जाने के विरोध में तत्काल विस्तार से बड़ा लेख लिखा था ,मैंने जब लेख लिखा था मैं जनवादी लेखक संघ की कोलकाता जिला शाखा का महासचिव था। मैं माकपा में भी था। मेरी तरह और भी अनेक लेखक हैं जिन्होंने अभिव्यक्ति की आजादी पर हुए हमलों के खिलाफ हमेशा आवाज बुलंद की है और हमेशा प्रगतिशील कदमों का समर्थन किया है। यदि किसी मसले पर प्रगतिशील लेखकों की राय मीडिया में नहीं दिखती तो इसका अर्थ यह नहीं है कि वे प्रतिक्रियावादी विचारों का समर्थन कर रहे हैं। मीडिया में प्रगतिशीलों के विचार न दिखने का बड़ा कारण है मीडिया की प्रगतिशीलों में दिलचस्पी का अभाव। मीडिया के लोग जब भी प्रगतिशील लेखकों से साहित्य-संस्कृति के किसी भी मसले पर राय मांगते हैं वे अमूमन उदार राय जाहिर करते हैं। प्रगतिशील लेखन की बुनियादी शर्त है उदार और सहिष्णु नजरिया। 

राव साहब यह आपके अंध-कम्युविस्ट विरोधी नजरिए से निकला काल्पनिक सोच है कि प्रगतिशील असहिष्णु होते हैं। असहिष्णु और अनुदार होकर प्रगतिशील-जनवादी साहित्य नहीं लिखा जा सकता। यह सच है कि प्रगतिशील लेखक संपादक के भांड नहीं होते,जबकि अंध-कम्युनिस्ट विचारधारा में नहाए पत्रकार ,संपादक के इशारों पर नाचने वाले शब्द-नर्तक और जलेबीवीर होते हैं। 



vvv

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